दोपहर जब मैं एक पेड़ के नीचे बैठा ,तभी सहसा ही एक ख्याल आया की ये पेड़ इतनी कड़कती धुप में भी छाया और ठंडी ठंडी हवा दे रहा है , उसे गौर से देखा हर तरफ से देखा सोचा पूछ लूँ की भाई तुम आखिर खाते क्या हो जो इतनी शीतलता बाँट रहे हो । सोचता रहा सोचता रहा , तभी एक आवाज़ सुनाई दी "भाई तुम अकेले ये सोच के क्या जाताना चाहते हो की मैं अपना कर्तव्य छोड़ दूं जैसे तुम लोगो ने छोड़ दिया "।
उसकी ये बात जैसे मुझे तीर सी चुभ गयी मैं समझ गया था की वो किस कर्तव्य की बात कर रहा है , मगर मैं उसके आगे एक शब्द न बोल पाया और बोलता भी तो कैसे मेरे लोगो ने ही मुझे गूंगा बना दिया था जंगल बर्बाद करके पेड़ काट करके और अब भी तो यही कर रहे है । मेरे पैर अपने आप वहां से शर्मिंदगी भरी झुकी नज़रो से दूर जाने को हुए तभी सहसा फिर उसने पुकारा "अरे भाई जा कहा रहे हो थोडा सुस्ता लो , नही लूंगा तुमसे कोई कर (टैक्स) मेरा प्यार मुफ़्त का है निःस्वार्थ है मैं कोई मूल्यवान चीज़े भी नही लेता बस देता हूँ और तुम्हे इसमें भी संतुष्टी नही ।
मैं फिर उसकी बातों को सुन के सकपका गया और नज़रे फिर शर्मिंदगी से झुक गयी और मैं वहां से घर की और चलने लगा उसने आवाज़ दी "अरे रुको लिटिल ब्लॉगर तुम सबकी व्यथा लिखते हो मेरी भी लिख दो लोगो को बता दो की मुझे उनकी नही बल्कि उनको मेरी जरूरत है वो मुझे खो के मृत्यु मार्ग अपना रहे है मेरे जाते ही इस सूंदर सृष्टि की शोभा नष्ट भ्रष्ट हो जायेगी प्रकृति शोक लोक में प्रवर्तित हो जायेगी चारो तरफ मृत्यु और अकाली का कुशासन होगा "।
फिर वो थोडा सा रुका और बोला "जाओ ये मेरी सलाह नही मेरी चेतावनी है और तुम भी जाओ जैसे सब चले गए "।
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